ll

भारत में जावेद साहब को सभी जानते है – एक महान कवि, गीतकार, पटकथा लेखक और राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में। मैने उनके द्वारा लिखी गई, कुछ प्रसिद्ध पुस्तके पढ़ी है। उन्हीं में से कुछ प्रसिद्ध और मेरी पसंदीदा कविताएं, ग़ज़ल और शायरीया यहां है। उम्मीद है आपको पसंद आएगी।

Gazal

कौन-सा शेर सुनाऊँ मैं तुम्हें, सोचता हूँ

नया उलझा है बहुत, और पुराना मुश्किल।

उन चराग़ों में तेल ही कम था,

क्यों गिला(शिकायत) फिर हमें हवा से रहे।

मेरे वुजूद से, यूँ बेख़बर है वो,

जैसे वो एक धूपघड़ी(दिन का एक पल) है, और मैं रात का पल।

ऐ सफ़र इतना बेकार तो न जा,

न हो मंज़िल, मुझे कहीं तो पहुँचा।

आज की दुनिया में जीने का तरीका समझो,

जो मिलें प्यार से, उन लोगों को सीढ़ी समझो।

गली में शोर था, मातम था और होता क्या,

मैं घर में था, मगर इस शोर में कोई सोता क्या।

इस शहर में जीने के अंदाज़ निराले हैं

होठों पे लतीफ़े हैं आवाज़ में छाले हैं

सब का ख़ुशी से फ़ासला एक क़दम है,

हर घर में बस एक ही कमरा कम है।

हमको उठना तो मुँह अँधेरे था,

लेकिन इक ख़्वाब हमको घेरे था।

ख़ुबसूरत भी है वो, ये अलग बात है, मगर, हमको समझदार लोग हमेशा से प्यारे थे।

ऊँची इमारतों से मकां मेरा घिर गया,

कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए।

गिन-गिन के सिक्के हाथ मेरा खुरदुरा हुआ, जाती रही वो स्पर्श की नर्मी, बहुत बुरा हुआ।

कविताएं

उलझन

करोड़ों चेहरे

और उनके पीछे करोड़ों चेहरे

ये रास्ते हैं कि भिड़ के छत्ते

ज़मीन जिस्मों से ढक गई है

क़दम तो क्या,

तिल(छोटा सा बीज) भी धरने की अब जगह नहीं है

ये देखता हूँ, तो सोचता हूँ

कि अब जहाँ हूँ

वहीं सिमट के खड़ा रहूँ

मैं मगर करूँ क्या

जानता हूँ कि रुक गया तो

जो भीड़ पीछे से आ रही है

वो मुझको पैरों तले कुचल देगी,

पीस देगी

तो अब जो चलता हूँ मैं

तो ख़ुद मेरे अपने पैरों में

आ रहा है किसी का सीना

किसी का बाज़ू

किसी का चेहरा

चलूँ तो औरों पे ज़ुल्म ढाऊँ

रुकूँ तो औरों के ज़ुल्म झेलूँ

ज़मीर(आत्मा) तुझको तो नाज़ है

अपनी मुंसिफ़ी(न्याय) पर

ज़रा सुनूँ तो

कि आज क्या तेरा फ़ैसला है।

मेरा आँगन, मेरा पेड़

मेरा आँगन, कितना फैला हुआ,

कितना बड़ा था।

जिसमें मेरे सारे खेल,

समा जाते थे,

और आँगन के आगे था वह पेड़,

क़ि जो मुझसे काफ़ी ऊँचा था,

लेकिन मुझको इसका यक़ीं था,

जब मैं बड़ा हो जाऊँगा,

इस पेड़ की फुनगी भी छू लूँगा।

बरसों बाद मैं घर लौटा हूँ

देख रहा हूँ

ये आँगन कितना छोटा है,

पेड़ मगर पहले से भी थोड़ा ऊँचा है।

वो कमरा याद आता है

मैं जब भी ज़िंदगी की

चिलचिलाती धूप में

तपकर

मैं जब भी,

दूसरों के और

अपने झूठ से थककर,

मैं सबसे लड़ के

खुद से हारके

जब भी, उस इक कमरे में जाता था

वो हलके और गहरे कत्थई रंगों का

इक कमरा,

वो बेहद मेहरबाँ कमरा

जो अपनी नर्म मुट्ठी में

मुझे ऐसे छुपा लेता था

जैसे कोई माँ

बच्चे को आँचल में छुपा ले

प्यार से डाँटे

ये क्या आदत है

जलती दोपहर में मारे मारे घूमते हो।

तब वो कमरा याद आता है,

दबीज़ और ख़ासा भारी

कुछ ज़रा मुश्किल से

खुलने वाला वो शीशम का दरवाजा,

कि जैसे कोई अक्खड़ बाप

अपने खुरदुरे सीने में

प्यार के समंदर को छुपाये हो

वो कुर्सी

और उसके साथ,

वो जुड़वाँ बहन उसकी

वो दोनों दोस्त थीं मेरी।

वो इक गुस्ताख़ मुँहफट आईना,

जो दिल का अच्छा था।

मुझे अपनाईयत से और

यक़ीं से देखतीं थीं।

मुस्कुराती थीं,

उन्हें शक भी नहीं था

एक दिन मैं उनको ऐसे छोड़ जाऊँगा,

मैं इक दिन यूँ भी जाऊँगा

कि फिर वापस न आऊँगा।

मैं अब जिस घर में रहता हूँ

बहुत ही ख़ूबसूरत है।

मगर, अकसर यहाँ ख़ामोश बैठा

याद करता हूँ

वो कमरा बात करता था।

भूख

आँख खुल गयी मेरी

हो गया मैं फिर ज़िन्दा

पेट के अँधेरों से, दिमाग के धुँधलकों तक

एक साँप के जैसा रेंगता ख़याल आया

आज तीसरा दिन है—आज तीसरा दिन है।

इक अजीब ख़ामोशी, मौजूद है कमरे में

एक फ़र्श और इक छत

और चारदीवारें मुझसे बे-मतलब

सब मेरे तमाशाई।

सामने की खिड़की से

तेज़ धूप की किरनें, आ रही हैं बिस्तर पर

चुभ रही हैं चेहरे में, इस क़दर।

नुकीली हैं जैसे, रिश्तेदारों के मज़ाक

मेरी गरीबी पर।

आँख खुल गयी मेरी, आज खोखला हूँ मैं

सिर्फ़ खो़ल बाक़ी है,

आज मेरे बिस्तर में, लेटा है मेरा ढाँचा

अपनी मुर्दा आँखों से, देखता है कमरे को

आज तीसरा दिन है

आज तीसरा दिन है।

दोपहर की गर्मी में,

बेइरादा क़दमों से

इक सड़क पे चलता हूँ

लोग आते जाते हैं, पास से गुज़रते हैं

फिर भी कितने धुँधले हैं

सब हैं जैसे बेचेहरे।

शोर इन दूकानों का,

राह चलती इक गाली।

दोपहर की गर्मी में

बेइरादा क़दमों से

इक सड़क पे चलता हूँ

सामने के नुक्कड़ पर,

नल दिखायी देता है।

सख़्त क्यों है ये पानी,

क्यों गले में फँसता है

मेरे पेट मे एक घुसा(मुक्का), एक लगता है

आ रहा है चक्कर-सा, जिस्म पर पसीना है

अब सकत नहीं बाक़ी,

आज तीसरा दिन है-आज तीसरा दिन है।

हर तरफ़ अँधेरा है, घाट पर अकेला हूँ

सीढ़ियाँ हैं पत्थर की, सीढ़ियों पे लेटा हूँ

अब मैं उठ नहीं सकता, आसमाँ को तकता हूँ

आसमाँ की थाली में, चाँद एक रोटी है।

मेरे घर में चूल्हा था, रोज़ खाना पकता था

रोटियाँ सुनहरी थी, गर्म-गर्म ये खाना था।

खुल नहीं रहीं आँखें, क्या मैं मरनेवाला हूँ!

मौत है कि बेहोशी

जो भी है ग़नीमत है

मौत है कि बेहोशी,

जो भी है ग़नीमत है

आज तीसरा दिन था-आज तीसरा दिन था।

फसाद(भ्रष्टता) से पहले

आज इस शहर में

हर शख़्स डरा क्यूँ है?

चेहरे क्यों उतरे हैं

गली कूचों में किसलिए चलती है

ख़ामोशो गहराई हवा

परचित आँखों पे भी

अजनबियत की ये

बारीक सी झिल्ली क्यूँ है

शहर सन्नाटे की ज़ंजीरों में

जकड़ा हुआ

अपराधी सा नज़र आता है

आज बाज़ार में भी

जाना पहचाना सा वो शोर नहीं

सब यूँ चलते हैं

कि जैसे ये जमीं काँच की है

हर नज़र नज़रों से कतराती है

बात खुलकर नहीं हो पाती है

साँस रोके हुए

हर चीज़ नज़र आती है

आज ये शहर

इक सहमे हुए बच्चे की तरह

अपनी परछाईं से भी डरता है

पंचाग देखो

मुझे लगता है

आज त्यौहार कोई है शायद।

फ़साद(भ्रष्टता) के बाद

गहरा सन्नाटा है

कुछ मकानों से

ख़ामोश उठता हुआ

गाढ़ा काला धुआँ मैल दिल में

लिए हर तरफ़ दूर तक

फैलता जाता है गहरा सन्नाटा

है लाश की तरह बेजान

है रास्ता एक टूटा हुआ

ठेला उलटा पड़ा

अपने पहिये हवा में उठाए हुए

आसमानों को हैरत से तकता है

जैसे कि जो भी हुआ

उसका अब तक यक़ीं

इसको आया नहीं

गहरा सन्नाटा है

एक उजड़ी दूकाँ चीख़ के बाद

मुँह जो खुला का खुला रह गया

अपने टूटे किवाड़ों से

वो दूर तक फैले

चूड़ी के टुकड़ों को

उदास मगर आशा से भरी

नज़रों से देखती है

कि कल तक यही शीशे

इस पोपले के मुँह में

सौ रंग के दाँत थे

गहरा सन्नाटा है

गहरे सन्नाटे ने अपने मंज़र से

यूँ बात की

सुन ले उजड़ी दुकाँ

ए सुलगते मकाँ, टूटे ठेले

तुम्हीं बस नहीं हो

अकेले यहाँ और भी हैं

जो बरबाद हुए हैं

हम इनका भी मातम करेंगे

मगर पहले उनको तो रो लें

कि जो लूटने आए थे

और ख़ुद लुट गए

क्या लुटा

इसकी उनको ख़बर ही नहीं

कमनज़र हैं कि सदियों की

तहज़ीब पर उन बेचारों की

कोई नज़र ही नहीं।

मुअम्मा(पहेली)

हम दोनों जो हर्फ़(अक्षर) थे

हम इक रोज़ मिले

इक लफ़्ज़(शब्द) बना

और हमने इक माने(अर्थ) पाए

फिर जाने क्या हम पर गुज़री

और अब यूँ है

तुम इक हर्फ़ हो

इक ख़ाने में

मैं इक हर्फ़ हूँ, इक ख़ाने में

बीच में कितने लम्हों के

ख़ाने ख़ाली हैं

फिर से कोई लफ़्ज़ बने

और हम दोनों इक माने पाएँ

ऐसा हो सकता है लेकिन

सोचना होगा इन ख़ाली ख़ानों में

हमको भरना क्या है।

बीमार की रात

दर्द बेरहम है, जल्लाद है दर्द

दर्द कुछ कहता नहीं, सुनता नहीं

दर्द बस होता है

दर्द का मारा हुआ, रौंदा हुआ

जिस्म तो अब हार गया

रूह ज़िद्दी है

लड़े जाती है

हाँपती-काँपती, घबराई हुई

दर्द के ज़ोर से थर्राई हुई

जिस्म से लिपटी है

कहती है नहीं छोडूँगी

मौत चौखट पे खड़ी है कब से

सब्र से देख रही है

उसको आज की रात, न जाने क्या हो।

हिज्र (विराह)

कोई शेर कहूँ

या दुनिया के किसी मौज़ूं(विषय) पर

मैं कोई नया मज़मून(लेख) पढूँ

या कोई अनोखी बात सुनूँ

कोई बात जो हँसनेवाली हो

कोई फ़िक़रा(वाक्य) जो दिलचस्प लगे

या कोई ख़याल अछूता सा

या कहीं मिले कोई मंज़र, जो हैराँ कर दे

कोई लम्हा जो दिल को छू जाए

मैं अपने ज़हन के गोशों(कोनों) में

इन सबको सँभाल के रखता हूँ

और सोचता हूँ

जब मिलोगे तुमकों सुनाऊँगा।

शायरी

दुख के जंगल में फिरते हैं, कब से मारे मारे लोग

जो होता है सह लेते हैं, कैसे हैं बेचारे लोग।

जीवन-जीवन हमने जग में, खेल यही होते देखा धीरे-धीरे जीती दुनिया, धीरे-धीरे हारे लोग।

वक़्त सिंहासन पर बैठा है, अपने राग सुनाता है संगत देने को पाते हैं, साँसों के इकतारे लोग।

नेकी इक दिन काम आती है, हमको क्या समझाते हो

हमने बेबस मरते देखे, कैसे प्यारे-प्यारे लोग।

इस नगरी में क्यों मिलती है, रोटी सपनों के बदले

जिनकी नगरी है वो जानें, हम ठहरे बँजारे लोग।

बहाना ढूँढते रहते हैं कोई रोने का,

हमें ये शौक़ है क्या आस्तीं भिगोने का।

अगर पलक पे है मोती, तो ये नहीं काफ़ी

हुनर भी चाहिए, अल्फ़ाज़(शब्दों) में पिरोने का।

जो फ़स्ल ख़्वाब की तैयार है, तो ये जानो

कि वक़्त आ गया, फिर दर्द कोई बोने का।

ये ज़िंदगी भी अजब कारोबार है, कि मुझे ख़ुशी है पाने की, कोई न रंज खोने का।

है पाश-पाश(चकनाचूर), मगर फिर भी मुस्कुराता है वो चेहरा, जैसे हो टूटे हुए खिलौने का।

घुल रहा है सारा मंज़र, शाम धुँधली हो गई

चाँदनी की चादर ओढ़े, हर पहाड़ी सो गई।

वादियों में पेड़ हैं, अब नीली परछाइयाँ

उठ रहा है कोहरा जैसे, चाँदनी का हो धुआँ।

चाँद पिघला तो चटानें, भी मुलायम हो गयीं

रात की साँसें जो महकीं, और मद्धम हो गईं।

नर्म है जितनी हवा, उतनी फ़िज़ा ख़ामोश है टहनियों पर ओस पी के, हर कली बेहोश है।

मोड़ पर करवट लिए, अब ऊँघते हैं रास्ते

दूर कोई गा रहा है जाने किसके वास्ते।

ये सुकूँ(आराम) में खोई वादी नूर(उजाला) की जागीर है

दूधिया पर्दे के पीछे, सुरमई तस्वीर है।

धुल गई है रूह लेकिन, दिल को ये एहसास है

ये सूकूँ बस चन्द लमहों को ही मेरे पास है।

फ़ासलों की गर्द में, ये सादगी खो जाएगी

शहर जाकर ज़िंदगी, फिर शहर की हो जाएगी।

My Fav🌟

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s

%d bloggers like this: